महाभारत खंड - 1 युद्ध के बीज - 7

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इसके उपरान्त भी राजा शांतनु कई दिनों तक गंगा के तट पर आते रहे । किन्तु , न तो उन्हें गंगा के न ही अपने पुत्र के दर्शन हुए ।
आँखों में अश्रु लिए शांतनु आज भी काफी देर तक तट के किनारे बैठे रहे । उनके अंतर्मन में द्वंद्व प्रारम्भ हो गया ।
" क्यों आते हो यहाँ ? जिसने मात्र शापमुक्ति के लिए तुम्हारे साथ प्रेम का अभिनय किया उसके लिए क्यों आते हो यहाँ ? "
शांतनु के मस्तिष्क ने उनके मन को फटकार लगाई । किन्तु , मन इस निराशा के क्षण में भी आशा को पूर्ण रूप से छोड़ नहीं पाया था ।
" नहीं ! ऐसा नहीं हो सकता । वह मात्र अभिनय नहीं था । वह सच्चा प्रेम था । "
" कैसा सच्चा प्रेम ! एक उचित प्रश्न के पूछने मात्र से जो सदा के लिए छोड़कर चला जाए उसके प्रेम का क्या मूल्य ? "
हाँ ! सत्य ही तो है । शायद प्रेम सिर्फ मैंने किया था ।
तत्क्षण राजा ने निश्चय कर लिया ।
" अगर मेरे आने से भी गंगा का ह्रदय नहीं पिघलता तो अब नहीं आऊँगा इस तट पर । "
राजा ने उसी क्षण अश्व पर बैठकर वहां से प्रस्थान किया ।
काल का चक्र आगे बढ़ता गया और राजा शांतनु ने अपने प्रारब्ध को स्वीकार कर लिया । प्रेम में आद्योपांत डूबे राजा से प्रजा का काफी अहित हो चुका था । शांतनु अब पूर्ण रूप से राज्य पर ध्यान देने लगे । हस्तिनापुर की सीमा दीर्घ से दीर्घतर होने लगी । राज्य में सबको न्याय मिलने लगा । वाणिज्य - व्यापार से समृद्धि आने लगी ।  राजा शांतनु की कीर्ति संपूर्ण भारतवर्ष में फैलने लगी ।
सोलह वर्ष का समय न जाने कितनी तीव्र गति से व्यतीत हो गया । आज वर्षों बाद राजा के मन में पुनः आखेट की इच्छा उत्पन्न हुई ।
यह सामान्य इच्छा थी या किसी की पुकार !.- राजा शांतनु समझ न सके ।
इतने वर्षों के उपरान्त भी आखेट के पीछे तीव्र गति से भागने की उनकी निपुणता अभी भी शेष थी । शीघ्र ही शांतनु अपनी सैन्य टुकड़ी को पीछे छोड़ आगे निकल गए । मृग धीरे - धीरे वन को पार करता हुआ गंगा की ओर बढ़ने लगा । शांतनु भी उसके पीछे बढ़ चले । अचानक मृग कही वृक्षों के झुरमुट में विलुप्त हो गया ।
आश्चर्य ! वर्षों बाद आज राजा शांतनु पुनः उसी वृक्ष के नीचे पहुँच चुके थे जहाँ वर्षों पहले वह आये थे । अतीत की संपूर्ण स्मृतियाँ आँखों के सामने पुनः सजीव हो उठीं ।
यही वह वृक्ष था जिसके नीचे उन्होंने विश्राम किया था । और यहीं से प्रथम बार उन्हें गंगा की झलक नदी के तट पर दिखी थी । राजा पुनः मंत्रमुग्ध से हो उठे । उनके मन में पुनः अतीत को जीने की इच्छा बलवती हो उठी । इस बार नदी के तट पर उन्हें कोई स्त्री आकृति नहीं दिखी । फिर भी वे बंधे से न जाने क्यों उस और ही बढ़ने लगे । गंगा के तट पर पहुंचकर उनकी आँखे आश्चर्य से फटी रह गयीं । गंगा सूख चुकी थी । नदी में जल का कोई चिह्न नहीं था ।  तभी उनके कानों  के निकट से एक तीर सनसनाता हुआ निकला । उन्होंने तीर की और दृष्टि डाली । तीर जाकर अपने लक्ष्य पर लगा ।
उनसे कुछ दूर सामने तीरों का अम्बार लगा था । तीरों से मानों बाँध निर्मित हो चुका था और गंगा की संपूर्ण जलराशि उस बाँध से रुक चुकी थी । किनारों से थोडा बहुत जल तट के दोनों ओर फ़ैल रहा था ।
शांतनु के मन में आश्चर्य एवं क्रोध की मिश्रित भावना उठी ।
" यह किसने किया ? मात्र तीरों से बाँध का निर्माण ! अद्भुत ! "
वह अभी कुछ सोच ही रहे थे कि एक और तीर उनके निकट से सनसनाता हुआ निकला ।
राजा शांतनु उस ओर मुड़े जिधर से तीर आया था । सामने एक लम्बे कद का युवा खड़ा था ।
चौड़ा ललाट , बड़ी - बड़ी आँखें , नुकीली नासिका , लम्बी ग्रीवा , उन्नत कंधे , कन्धों तक लहराते घुँघराले केश , चौड़ी छाती , गठीली मांसपेशियां , घुटनों तक पहुँचती लम्बी भुजा एवं उज्जवल गौर वर्ण - ऐसे  सुन्दर एवं शक्तिशाली शरीर से युक्त युवा आजतक शांतनु ने नहीं देखा था ।
" यह कोई मनुष्य नहीं हो सकता ! इसका यह अद्भुत सौंदर्य एवं धनुष विद्या में ऐसी निपुणता कि गंगा भी बंध गयी । निश्चय ही यह कोई देवता है ।"
मन में ऐसा सोचते हुए शांतनु उस युवा की ओर बढे । उस युवा ने धनुषयुक्त अपनी भुजा को विश्राम दिया ।  धनुष को भूमि पर टिका कर वह खड़ा था । उसके होठों पर एक हल्की मुस्कान थी एवं मस्तक से एक दिव्य तेज़ निकल रहा था । शांतनु उसके निकट पहुंचे एवं पूछा -
" आप कौन हैं ? कोई मनुष्य तो नहीं लगते ! आपका परिचय ? "
उस युवा ने दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन किया एवं सिर झुकाया । तत्क्षण उनके सामने से वह युवा अंतर्धान हो गया ।
शांतनु चकित रह गए ।
" अभी  तो यहीं था वह युवा ! अचानक कहाँ चला गया ? "
शांतनु ने अपनी दृष्टि चारों ओर दौड़ाई । परतु , वह कहीं नहीं दिखा । अचानक उनकी दृष्टि बाँध की ओर गयी । एक - एक तीर स्वतः उससे बाहर निकलने लगा । गंगा की धारा धीरे - धीरे मुक्त होने लगी । शांतनु तीव्र गति से तट पर सुरक्षित स्थान की ओर लौटे । कुछ समय के उपरान्त गंगा मुक्त हुई एवं प्रवाहित होने लगी ।
जब भी वह गंगा के तट पर आते हैं कोई न कोई अद्भुत घटना घटती है । आज से सोलह वर्ष पूर्व इसी तट पर अपनी पत्नी एवं पुत्र से वियोग हुआ था । और आज यह अद्भुत घटना ! न जाने कितने प्रश्न लिए शांतनु वहीं भूमि पर बैठ गए । सामने प्रवाहित होती गंगा पर उनकी दृष्टि टिकी थी । शांत प्रवाहित होती गंगा की लहरें अचानक चंचल हो उठीं । उसमें एक भंवर सा उत्पन्न हुआ और जल की राशि ऊपर की और उठने लगी ।
क्रमशः ............
लेखक - राजू रंजन  

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